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एक लड़का - इब्न-ए-इंशा कविता - Darsaal

एक लड़का

एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों

एक मेले में पहुँचा हुमकता हुआ

जी मचलता था एक एक शय पर

जैब ख़ाली थी कुछ मोल ले न सका

लौट आया लिए हसरतें सैंकड़ों

एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों

ख़ैर महरूमियों के वो दिन तो गए

आज मेला लगा है उसी शान से

आज चाहूँ तो इक इक दुकाँ मोल लूँ

आज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ

ना-रसाई का अब जी में धड़का कहाँ

पर वो छोटा सा अल्हड़ सा लड़का कहाँ

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