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लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए - इब्न-ए-इंशा कविता - Darsaal

लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए

लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए

हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए

उन लोगों की बात करो जो इश्क़ में ख़ुश-अंजाम हुए

नज्द में क़ैस यहाँ पर 'इंशा' ख़ार हुए नाकाम हुए

किस का चमकता चेहरा लाएँ किस सूरज से माँगें धूप

घूर अँधेरा छा जाता है ख़ल्वत-ए-दिल में शाम हुए

एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है

एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए

शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो

चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए

उन से बहार ओ बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या

जिन को एक ज़माना गुज़रा कुंज-ए-क़फ़स में राम हुए

'इंशा'-साहिब पौ फटती है तारे डूबे सुब्ह हुई

बात तुम्हारी मान के हम तो शब भर बे-आराम हुए

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