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कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो - इब्न-ए-इंशा कविता - Darsaal

कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो

कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो

ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो

सच अच्छा पर उस के जिलौ में ज़हर का है इक प्याला भी

पागल हो क्यूँ नाहक़ को सुक़रात बनो ख़ामोश रहो

उन का ये कहना सूरज ही धरती के फेरे करता है

सर-आँखों पर सूरज ही को घूमने दो ख़ामोश रहो

महबस में कुछ हब्स है और ज़ंजीर का आहन चुभता है

फिर सोचो हाँ फिर सोचो हाँ फिर सोचो ख़ामोश रहो

गर्म आँसू और ठंडी आहें मन में क्या क्या मौसम हैं

इस बगिया के भेद न खोलो सैर करो ख़ामोश रहो

आँखें मूँद किनारे बैठो मन के रक्खो बंद किवाड़

'इंशा'-जी लो धागा लो और लब सी लो ख़ामोश रहो

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