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'इंशा'-जी है नाम उन्ही का चाहो तो तुम से मिलवाएँ - इब्न-ए-इंशा कविता - Darsaal

'इंशा'-जी है नाम उन्ही का चाहो तो तुम से मिलवाएँ

'इंशा'-जी है नाम उन्ही का चाहो तो तुम से मिलवाएँ

उन की रूह दहकता लावा हम तो उन के पास न जाएँ

ये जो लोग बनों में फिरते जोगी बै-रागी कहलाएँ

उन के हाथ अदब से चूमें उन के आगे सीस नवाएँ

ना ये लाल जटाएँ राखें ना ये अंग भबूत रमाएँ

ना ये गेरू-रंग फ़क़ीरी-चोला पहन पहन इतराएँ

बस्ती से गुज़रें तो सारे पनघट की अल्हड़ अबलाएँ

इन की प्यास बुझाने को ख़ुद उमड-घुमड बादल बन जाएँ

नगरी नगरी घूमने वालों में उन की मशहूर कथाएँ

वैसे बात करो तो लाज से उन की आँखें झुक झुक जाएँ

ना उन की गुदड़ी में ताँबा पैसा ना मनके मालाएँ

प्रेम का कासा दर्द की भिक्षा गीत ग़ज़ल दो है कविताएँ

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