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हम उन से अगर मिल बैठे हैं क्या दोश हमारा होता है - इब्न-ए-इंशा कविता - Darsaal

हम उन से अगर मिल बैठे हैं क्या दोश हमारा होता है

हम उन से अगर मिल बैठे हैं क्या दोश हमारा होता है

कुछ अपनी जसारत होती है कुछ उन का इशारा होता है

कटने लगीं रातें आँखों में देखा नहीं पलकों पर अक्सर

या शाम-ए-ग़रीबाँ का जुगनू या सुब्ह का तारा होता है

हम दिल को लिए हर देस फिरे इस जिंस के गाहक मिल न सके

ऐ बंजारो हम लोग चले हम को तो ख़सारा होता है

दफ़्तर से उठे कैफ़े में गए कुछ शेर कहे कुछ कॉफ़ी पी

पूछो जो मआश का 'इंशा'-जी यूँ अपना गुज़ारा होता है

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