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दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो - इब्न-ए-इंशा कविता - Darsaal

दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो

दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो

इस बात से हम को क्या मतलब ये कैसे हो ये क्यूँकर हो

इक भीक के दोनों कासे हैं इक प्यास के दोनो प्यासे हैं

हम खेती हैं तुम बादल हो हम नदियाँ हैं तुम सागर हो

ये दिल है कि जलते सीने में इक दर्द का फोड़ा अल्लहड़ सा

ना गुप्त रहे ना फूट बहे कोई मरहम हो कोई निश्तर हो

हम साँझ समय की छाया हैं तुम चढ़ती रात के चन्द्रमाँ

हम जाते हैं तुम आते हो फिर मेल की सूरत क्यूँकर हो

अब हुस्न का रुत्बा आली है अब हुस्न से सहरा ख़ाली है

चल बस्ती में बंजारा बन चल नगरी में सौदागर हो

जिस चीज़ से तुझ को निस्बत है जिस चीज़ की तुझ को चाहत है

वो सोना है वो हीरा है वो माटी हो या कंकर हो

अब 'इंशा'-जी को बुलाना क्या अब प्यार के दीप जलाना क्या

जब धूप और छाया एक से हों जब दिन और रात बराबर हो

वो रातें चाँद के साथ गईं वो बातें चाँद के साथ गईं

अब सुख के सपने क्या देखें जब दुख का सूरज सर पर हो

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