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लोगों ने आकाश से ऊँचा जा कर तमग़े पाए - हुसैन माजिद कविता - Darsaal

लोगों ने आकाश से ऊँचा जा कर तमग़े पाए

लोगों ने आकाश से ऊँचा जा कर तमग़े पाए

हम ने अपना अंतर खोजा दीवाने कहलाए

कैसे सपने किस की आशा कब से हैं मेहमान बने

तन्हाई के सूने आँगन में यादों के साए

आँखों में जो आज किसी के बदली बन के झूम उठी है

क्या अच्छा हो ऐसी बरसे सब जल-थल हो जाए

धूल बने ये बात अलग है वर्ना इक दिन होते थे

चंदा के हम संघी-साथी तारों के हम-साए

आने वाले इक पल को मैं कैसे बतला पाऊँगा

आशा कब से दूर खड़ी है बाहोँ को फैलाए

चाँद और सूरज दोनों आशिक़ धरती किस का मान रखे

इक चाँदी के गहने फेंके इक सोना बिखराए

कहने की तो बात नहीं है लेकिन कहनी पड़ती है

दिल की नगरी में मत जाना जो जाए पछताए

'माजिद' हम ने इस जुग से बस दो ही चीज़ें माँगी हैं

ऊषा सा इक सुंदर चेहरा दो नैनाँ शरमाए

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