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सुबूत-ए-जुर्म न मिलने का फिर बहाना किया - हुसैन ताज रिज़वी कविता - Darsaal

सुबूत-ए-जुर्म न मिलने का फिर बहाना किया

सुबूत-ए-जुर्म न मिलने का फिर बहाना किया

कि अदलिया ने वही फ़ैसला पुराना किया

हवा के अपने मसाइल हैं और चराग़ के भी

न वो ग़लत न अमल उस ने मुजरिमाना किया

ये तुम ने जंग का उनवान ही बदल डाला

अलम सजाया न लश्कर कोई रवाना किया

हरी भरी थीं जो शाख़ें वही फलीं फूलीं

उसी शजर को परिंदों ने आशियाना किया

सवाल मैं ने भी रक्खे गुज़ारिशों की तरह

बदल के उस ने भी अंदाज़-ए-दिल-बराना किया

मिरे लिए ही अदावत के दर भी खोले गए

मिरे ही नाम मोहब्बत का भी ख़ज़ाना किया

हमेशा वअ'दे हुए ताज के हवाले से

अगरचे तख़्त ने वअ'दा कभी वफ़ा न किया

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