माहौल से जैसे कि घुटन होने लगी है
माहौल से जैसे कि घुटन होने लगी है
बे-कैफ़ियती उ'ज़्व-ए-बदन होने लगी है
कुछ फ़र्क़ सा महसूस नहीं शाम-ओ-सहर में
उठने के तसव्वुर से थकन होने लगी है
मफ़क़ूद हुई ख़ुनकी-ए-एहसास नज़र से
सब्ज़ों को भी देखे से जलन होने लगी है
कुछ उस से गिला भी है कुछ अपनी भी ख़ताएँ
यूँ उस के तसव्वुर से चुभन होने लगी है
हस्सास भी इमरोज़ तबीअ'त से ज़्यादा
और तेज़ भी कुछ बू-ए-समन होने लगी है
पहले भी तिरी बात ही मरकज़ थी सुख़न का
अब याद तिरी सर्फ़-ए-सुख़न होने लगी है
ऐ 'ताज' तिरे एक नशेमन के हसद में
आ देख कि तख़रीब-ए-चमन होने लगी है
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