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जब झूट रावियों के क़लम बोलने लगे - हुसैन ताज रिज़वी कविता - Darsaal

जब झूट रावियों के क़लम बोलने लगे

जब झूट रावियों के क़लम बोलने लगे

हर ख़ुद-सरी को जाह-ओ-हशम बोलने लगे

इक इज़्न-ए-लब-कुशाई ने बेबाक कर दिया

देखो किस ए'तिमाद से हम बोलने लगे

कोई किसी से पूछ रहा था तिरा सुराग़

उठ उठ के मेरे नक़्श-ए-क़दम बोलने लगे

समझे थे आस्तीन छुपा लेगी सब गुनाह

लेकिन ग़ज़ब हुआ कि सनम बोलने लगे

हक़-गोई के महाज़ पे मंज़र बदल गया

ख़ामोश सब अरब हैं अजम बोलने लगे

तंबीह की थी दिल की दहन भी सिए मगर

मैं क्या करूँ कि दीदा-ए-नम बोलने लगे

माहौल बद-गुमान था तंग आ के 'ताज' भी

ख़ामोश होने वाले थे कम बोलने लगे

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