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इस हाल में जीते हो तो मर क्यूँ नहीं जाते - हुसैन ताज रिज़वी कविता - Darsaal

इस हाल में जीते हो तो मर क्यूँ नहीं जाते

इस हाल में जीते हो तो मर क्यूँ नहीं जाते

यूँ टूट चुके हो तो बिखर क्यूँ नहीं जाते

कैसे हैं ये अरमान ये काविश ये तग-ओ-दौ

मंज़िल नहीं मालूम तो घर क्यूँ नहीं जाते

अश्कों की तरह क्यूँ मिरी पलकों पे रुके हो

ख़ंजर की तरह दिल में उतर क्यूँ नहीं जाते

माना कि ये सब ज़ख़्म-ए-जिगर तुम ने दिए हैं

मरहम से किसी और के भर क्यूँ नहीं जाते

आईना है माहौल है अस्बाब हैं तुम हो

ख़ातिर मिरी इक बार सँवर क्यूँ नहीं जाते

बे-ख़ुद थे किया ग़ैर से वअ'दा मुझे मंज़ूर

आया है अगर होश मुकर क्यूँ नहीं जाते

ऐ 'ताज' उम्मीदों के ये मौसम भी अजब हैं

हर रुत की तरह ये भी गुज़र क्यूँ नहीं जाते

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