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किरन किरन के दरख़्शंदा बाब मेरे हैं - हुसैन सहर कविता - Darsaal

किरन किरन के दरख़्शंदा बाब मेरे हैं

किरन किरन के दरख़्शंदा बाब मेरे हैं

तमाम रौशनियों के निसाब मेरे हैं

शबों के सब्ज़ जज़ीरे हैं सब मिरी अक़्लीम

तमाम जागती आँखों के ख़्वाब मेरे हैं

मैं हूँ तमाम धड़कते दिलों का शैदाई

ये आबगीने ये नाज़ुक हबाब मेरे हैं

तमाम उम्र तख़ातुब मिरा मुझी से रहा

सवाल मैं ने किए हैं जवाब मेरे हैं

ख़ुदा-ए-दश्त की तक़्सीम पर मैं राज़ी हूँ

कि आब-पारे तिरे हैं सराब मेरे हैं

नसीब आज हैं काँटे अगर तो क्या ग़म है

नई रुतों के शगुफ़्ता-गुलाब मेरे हैं

मैं आफ़्ताब के मानिंद हूँ नक़ीब-ए-'सहर'

सियाहियों पे सभी एहतिसाब मेरे हैं

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