मर-मिटे जब से हम उस दुश्मन-ए-दीं पर साहब
मर-मिटे जब से हम उस दुश्मन-ए-दीं पर साहब
पाँव टिकते ही नहीं अपने ज़मीं पर साहब
ख़ुश-गुमानी का ये आलम है कि हर बात के बीच
हाँ का धोका हो हमें उस की नहीं पर साहब
तख़्त यारों को है ग़म शाह की माज़ूली का
और फ़िदा भी हैं नए तख़्त-नशीं पर साहब
हम तो इक साँवली सूरत है जिसे चाहते हैं
आप मर जाएँ किसी माह-जबीं पर साहब
हुस्न रंगों के तसादुम से जिला पाता है
जैसे इक ख़ाल किसी रू-ए-हसीं पर साहब
हम वो मजरूह-ए-ज़ियारत कि सर-ए-महफ़िल भी
आँख रखते हैं उसी पर्दा-नशीं पर साहब
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