बैठे बैठे रस्ते निकल आते हैं
चलते चलते गुम जाते हैं
फिर कोई पेड़ निकल आता है
जिस के नीचे बैठ के हम
गुम रस्ते दोहराते हैं
लम्हा भर सुस्ताते हैं
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मैदान
भारी बस्ता
फिर कोई पेड़ नकुल आता है
हर्कुलेस और पाटे-ख़ान की सर्कस
खड्डियों पर बने लोग
कभी वफ़ूर-ए-तमन्ना कभी मलामत ने
ज़मीं का दम निकलता जा रहा है
ख़यालों ख़यालों में किस पार उतरे
राहत ओ रंज से जुदा हो कर
रौशनी में खोई गई रौशनी
साँस भर हवा