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वो दिल जो था किसी के ग़म का महरम हो गया रुस्वा - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

वो दिल जो था किसी के ग़म का महरम हो गया रुस्वा

वो दिल जो था किसी के ग़म का महरम हो गया रुस्वा

जहान-ए-बेश-ओ-कम में ख़्वाब-ए-आदम हो गया रुस्वा

न चौंका निकहत-ए-आवारा की रूदाद पर कोई

ये क्यूँ अफ़्साना-ए-पर्वाज़-ए-शबनम हो गया रुस्वा

दिखाई अहल-ए-दिल को मंज़िल-ए-दार-ओ-रसन जिस ने

तुम्हारी कज-कुलाही का वो आलम हो गया रुस्वा

अमानत सीना-ए-लाला में किस की थी न ये पूछो

कि सई-ए-पर्दा-दारी में मिरा ग़म हो गया रुस्वा

है आईने की हैरानी भी अफ़्साना-दर-अफ़्साना

तिरे असरार-ए-महजूबी का महरम हो गया रुस्वा

पसंद आई ग़ज़ल को 'मीर' की आशुफ़्ता-सामानी

तिरा राज़-आश्ना ऐ ज़ुल्फ़-ए-बरहम हो गया रुस्वा

ख़बर क्या थी कि आँसू पी के भी जीना नहीं आसाँ

ये ग़म कम है गुदाज़-ए-शेवा-ए-ग़म हो गया रुस्वा

बसाना था किसी हीले से दुनिया के ख़राबे को

ये ऐसी मस्लहत थी जिस पे आदम हो गया रुस्वा

अजब तर्ज़-ए-मुदावा था हमारे चारासाज़ों का

कि 'हुर्मत' इर्तिबात-ए-ज़ख़्म-ओ-मरहम हो गया रुस्वा

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