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वो आलम है कि हर मौज-ए-नफ़स है रूह पर भारी - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

वो आलम है कि हर मौज-ए-नफ़स है रूह पर भारी

वो आलम है कि हर मौज-ए-नफ़स है रूह पर भारी

ख़ुदा जाने ये जीना है कि जीने की अदाकारी

ख़ुदा-वंदा तिरे ज़ौक़-ए-अता को क्या कहे कोई

मिली है हम से ख़ुफ़्ता-क़िस्मतों को दिल की बेदारी

डराता क्या दिल-ए-सरकश को एहसास-ए-सज़ा लेकिन

लरज़ जाता है नाम-ए-अफ़्व से नाज़-ए-ख़ता-कारी

नज़र उट्ठी किसी की दिल ने इक पैग़ाम सा पाया

ये लम्हा है कि हम उड़ती हुई सी कोई चिंगारी

उठाए ज़िंदगी का बोझ बढ़ता जा रहा हूँ मैं

तमन्ना-ए-सुबुक-सारी न एहसास-ए-गिराँ-बारी

मिटाई जाएगी ये मुस्कुराती नाचती दुनिया

अज़ल से सिर्फ़ इक दिन के लिए क्या क्या है तय्यारी

फ़रिश्ते रश्क से क्या क्या न तकते हैं उसे 'हुर्मत'

कोई करता है पहली बार जब अज़्म-ए-गुनहगारी

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