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वक़्त गर्दिश में ब-अंदाज़-ए-दिगर है कि जो था - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

वक़्त गर्दिश में ब-अंदाज़-ए-दिगर है कि जो था

वक़्त गर्दिश में ब-अंदाज़-ए-दिगर है कि जो था

तन में जाँ है कि जो थी दोश पे सर है कि जो था

क़ाफ़िले लुटते गए बुझते गए दिल लेकिन

एक हंगामा सर-ए-राहगुज़र है कि जो था

तेशा-ए-फ़िक्र वही नश्तर-ए-एहसास वही

ज़ख़्म-ए-सर है कि जो था ज़ख़्म-ए-जिगर है कि जो था

साथ क़दमों के लगा चलता है अपना साया

वही हम हैं वही सहरा-ए-सफ़र है कि जो था

आदमी अपने ख़यालों का सुलगता पैकर

ख़ुद-निगर है कि जो था ख़ाक-बसर है कि जो था

आँख वालों ने तो हर मोड़ पे बदले अंदाज़

एक अपना वही अंदाज़-ए-नज़र है कि जो था

आग जंगल की बुझाए ये पड़ी है किस को

वुसअ'त-ए-जाँ में वही रक़्स-ए-शरर है कि जो था

अक़्ल ये तेरी ही पूँजी है समझ या न समझ

दिल इक उजड़ा हुआ जलता हुआ घर है कि जो था

पूछने आए हैं बिछड़े हुए लम्हे 'हुर्मत'

क्या वही सिलसिला-ए-शाम-ओ-सहर है कि जो था

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