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सूरत-ए-सब्ज़ा-ए-बे-गाना चमन से गुज़रे - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

सूरत-ए-सब्ज़ा-ए-बे-गाना चमन से गुज़रे

सूरत-ए-सब्ज़ा-ए-बे-गाना चमन से गुज़रे

हम मुसाफ़िर की तरह अपने वतन से गुज़रे

सहल है नारा-ए-मंसूर मगर सहल नहीं

हर कोई मरहला-ए-दार-ओ-रसन से गुज़रे

लाला-ओ-गुल को तबस्सुम की ज़िया दी हम ने

जल्वा-ए-सुब्ह की मानिंद चमन से गुज़रे

है ये क्या रौशनी-ए-फ़िक्र की तीरा-बख़्ती

जल्वा-ए-रूह न पैराहन-ए-तन से गुज़रे

वो करे तज्ज़िया-ए-मौसम-ए-गुल जिस की नज़र

बज़्म-ए-गुल में हद-ए-नसरीन-ओ-समन से गुज़रे

दिल पे क्या गुज़री ये दिल ही को ख़बर है लेकिन

मुस्कुराते हुए हम दार-ए-मेहन से गुज़रे

न किसी पाँव की आहट न कोई नक़्श-ए-क़दम

क़ाफ़िले रूह के यूँ कूचा-ए-तन से गुज़रे

एक ज़र्रे में कभी खो गईं कितनी किरनें

कितने ख़ुर्शीद कभी एक किरन से गुज़रे

निकहत-ए-गेसू-ए-जानाँ भी अजब थी 'हुर्मत'

हम तसव्वुर में कई बार ख़ुतन से गुज़रे

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