रह-ए-तलब में बड़ी तुर्फ़गी के साथ चले
रह-ए-तलब में बड़ी तुर्फ़गी के साथ चले
किसी के साथ न थे और सभी के साथ चले
न हम-सफ़र कोई पाया न राहबर चाहा
वो राह-रौ हैं कि हम ज़िंदगी के साथ चले
फ़रेब ख़ुद को दिए और ख़ुद ही पछताए
किसी का जो न हुआ हम उसी के साथ चले
कहो कि होती है इक चीज़ सर-बुलंदी भी
कहा ये किस ने कि हम सर-कशी के साथ चले
रहे शरीक-ए-सफ़र ए'तिमाद-ए-हम-क़दमी
ये क्या ज़रूर है कोई किसी के साथ चले
शिकस्ता-पा ही सही रहरवान-ए-दर्द मगर
ये कम नहीं कि सलामत-रवी के साथ चले
ख़ुद अपना सोज़-ए-तलब दे सके न जिस का साथ
दयार-ए-ग़म में वो किस रौशनी के साथ चले
ये कह के हो गए ख़ुद से भी हम जुदा 'हुर्मत'
सफ़र में कौन किसी अजनबी के साथ चले
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