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रहेगा अक़्ल के सीने पे ता-अबद ये दाग़ - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

रहेगा अक़्ल के सीने पे ता-अबद ये दाग़

रहेगा अक़्ल के सीने पे ता-अबद ये दाग़

कि ज़िंदगी ने भी पाया न ज़िंदगी का सुराग़

अजीब तरह गुज़ारा है दौर-ए-तीरा-शबी

जला जला के बुझाए हैं मैं ने कितने चराग़

है जीने वालों की ख़ातिर ये कैसी मजबूरी

न ज़िंदगी का फ़राग़ और न ज़िंदगी से फ़राग़

ये कुछ हमारे ही क़ल्ब-ए-तपीदा को है ख़बर

फ़रोग़-ए-नूर से क्या क्या न जल बुझे हैं चराग़

है रौशनी के लिए रौशनी पयाम-ए-अजल

सहर क़रीब है और झिलमिला रहे हैं चराग़

मुझे बता कि है उस मय में कैफ़-ए-मय कितना

मैं जानता हूँ कि ख़ाली नहीं किसी का अयाग़

किसी तरह सही बदले तो रस्म-ए-पारीना

उगाए जाओ बयाबाँ उजाड़ते चलो बाग़

दिखा रहा हूँ मैं दुनिया को दिल का आईना

ब-ईं यक़ीं कि नहीं माहताब भी बे-दाग़

ये रात महफ़िल-ए-आदम पे है गराँ 'हुर्मत'

भड़क उठे हैं ख़ुद अपनी ही रौशनी से चराग़

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