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ख़्वाबों के साथ ज़ेहन की अंगड़ाइयाँ भी हैं - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

ख़्वाबों के साथ ज़ेहन की अंगड़ाइयाँ भी हैं

ख़्वाबों के साथ ज़ेहन की अंगड़ाइयाँ भी हैं

इक रौशनी भी है कई परछाइयाँ भी हैं

ये काएनात ख़ुद भी है इक पैकर-ए-जमील

और कुछ तिरे जमाल की रानाइयाँ भी हैं

डूबा हुआ हूँ क़ुल्ज़ुम-ए-आलाम में मगर

ज़ेर-ए-क़दम हयात की परछाइयाँ भी हैं

जादू जगाती रात के सायों के आस-पास

लर्ज़ां तुम्हारी याद की पहनाईयाँ भी हैं

आता नहीं शबाब यूँही काएनात पर

मसरूफ़ कार-ए-इश्क़ की बरनाइयाँ भी हैं

शाम-ए-बला न मुझ से चुरा इस तरह निगाह

तन्हा नहीं हूँ मैं मिरी तन्हाइयाँ भी हैं

हैं तेरी अंजुमन में हमें इक फ़सुर्दा-दिल

लेकिन हमीं से अंजुमन-आराइयाँ भी हैं

'हुर्मत' फ़क़त बुलंदी-ए-एहसास ही नहीं

मेरी तलब में रूह की गहराइयाँ भी हैं

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