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जैसे जैसे दर्द का पिंदार बढ़ता जाए है - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

जैसे जैसे दर्द का पिंदार बढ़ता जाए है

जैसे जैसे दर्द का पिंदार बढ़ता जाए है

ए'तिमाद-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार बढ़ता जाए है

दिल उमडता आए है मिट्टी हुई जाती है नम

ज़िंदगी पर ज़िंदगी का बार बढ़ता जाए है

ये न पूछो देखता जाता है मुड़ मुड़ कर किसे

एक दीवाना कि सू-ए-दार बढ़ता जाए है

कुछ न कुछ होना है आख़िर तप के कुंदन जल के राख

दिल की जानिब शो'ला-ए-अफ़्कार बढ़ता जाए है

आगही का सदक़ा वाजिब है उठाओ जाम-ए-ज़हर

लम्हा लम्हा वक़्त का इसरार बढ़ता जाए है

सख़्ती-ए-राह-ए-तलब से दिल लरज़ता है मगर

मुझ से आगे जज़्बा-ए-बेदार बढ़ता जाए है

रफ़्ता रफ़्ता सोज़-ए-हिरमाँ होता जाता है फ़ुज़ूँ

रफ़्ता रफ़्ता ज़िंदगी से प्यार बढ़ता जाए है

ये जहान-ए-आब-ओ-गिल है इम्तिहाँ-गाह-ए-शुऊ'र

ग़म ब-क़द्र-ए-अज़्मत-ए-किरदार बढ़ता जाए है

क्या ख़बर 'हुर्मत' कि तकमील-ए-सफ़र हो किस तरह

इल्तिफ़ात-ए-वादी-ए-पर-ख़ार बढ़ता जाए है

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