जैसे जैसे दर्द का पिंदार बढ़ता जाए है
जैसे जैसे दर्द का पिंदार बढ़ता जाए है
ए'तिमाद-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार बढ़ता जाए है
दिल उमडता आए है मिट्टी हुई जाती है नम
ज़िंदगी पर ज़िंदगी का बार बढ़ता जाए है
ये न पूछो देखता जाता है मुड़ मुड़ कर किसे
एक दीवाना कि सू-ए-दार बढ़ता जाए है
कुछ न कुछ होना है आख़िर तप के कुंदन जल के राख
दिल की जानिब शो'ला-ए-अफ़्कार बढ़ता जाए है
आगही का सदक़ा वाजिब है उठाओ जाम-ए-ज़हर
लम्हा लम्हा वक़्त का इसरार बढ़ता जाए है
सख़्ती-ए-राह-ए-तलब से दिल लरज़ता है मगर
मुझ से आगे जज़्बा-ए-बेदार बढ़ता जाए है
रफ़्ता रफ़्ता सोज़-ए-हिरमाँ होता जाता है फ़ुज़ूँ
रफ़्ता रफ़्ता ज़िंदगी से प्यार बढ़ता जाए है
ये जहान-ए-आब-ओ-गिल है इम्तिहाँ-गाह-ए-शुऊ'र
ग़म ब-क़द्र-ए-अज़्मत-ए-किरदार बढ़ता जाए है
क्या ख़बर 'हुर्मत' कि तकमील-ए-सफ़र हो किस तरह
इल्तिफ़ात-ए-वादी-ए-पर-ख़ार बढ़ता जाए है
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