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एक दुनिया कह रही है कौन किस का आश्ना - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

एक दुनिया कह रही है कौन किस का आश्ना

एक दुनिया कह रही है कौन किस का आश्ना

मैं ही वो था जिस ने इक दुनिया को समझा आश्ना

पूछते हैं बुझते लम्हों के खंडर हर शाम को

हो गई क्या दिल की वो शम-ए-ख़राबा आश्ना

ढूँढता है देर से खोए हुए सिक्के की तरह

माज़ी-ए-ख़ामोश को इमरोज़ फ़र्दा-आश्ना

ये ज़मीं सदियों पे जिस की आग ने बदला था रूप

रफ़्ता रफ़्ता हो चली इक बर्ग शो'ला-आश्ना

नख़्ल-हा-ए-रह-गुज़र तुम क्या हमें पहचानते

कितने साए खो चुका है ज़ौक़-ए-सहरा-आश्ना

कारोबार-ए-क़ुरबत-ओ-दूरी में अक्सर बन गए

अजनबी इख़्लास गेसू आश्ना ना-आश्ना

वुसअ'त-ए-दामाँ का 'हुर्मत' जाएज़ा लेना पड़ा

महव-ए-ग़व्वासी है कब से फ़िक्र दरिया-आश्ना

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