दिल को तौफ़ीक़-ए-ज़ियाँ हो तो ग़ज़ल होती है
दिल को तौफ़ीक़-ए-ज़ियाँ हो तो ग़ज़ल होती है
ज़हर-ए-ग़म बादा-चुकाँ हो तो ग़ज़ल होती है
फ़िक्र तप तप के निखरती रहे कुंदन की तरह
आग सीने की जवाँ हो तो ग़ज़ल होती है
धीमी धीमी सी नवा सिलसिला जुम्बान-ए-अबद
पर्दा-ए-जाँ में निहाँ हो तो ग़ज़ल होती है
धड़कनें सूरत-ए-अल्फ़ाज़ बिखरती जाएँ
दिल मआ'नी की ज़बाँ हो तो ग़ज़ल होती है
आँच मिट्टी के खिलौनों की तरह मिलती जाए
ज़ेहन ख़्वाबों से तपाँ हो तो ग़ज़ल होती है
रौज़न-ए-माह से पिछले पहर इक शोख़-लक़ा
जानिब-ए-दिल-निगराँ हो तो ग़ज़ल होती है
रूह-ए-शब अपनी अदाओं की तब-ओ-ताब लिए
ख़ल्वत-आरा-ए-बयाँ हो तो ग़ज़ल होती है
एक सय्याल कसक जादा-कुशा-ए-तख़्लीक़
फ़न की नब्ज़ों में रवाँ हो तो ग़ज़ल होती है
तजरबे दर्द की शबनम में नहाएँ 'हुर्मत'
गुल-फ़िशाँ शो'ला-ए-जाँ हो तो ग़ज़ल होती है
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