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दिल को तौफ़ीक़-ए-ज़ियाँ हो तो ग़ज़ल होती है - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

दिल को तौफ़ीक़-ए-ज़ियाँ हो तो ग़ज़ल होती है

दिल को तौफ़ीक़-ए-ज़ियाँ हो तो ग़ज़ल होती है

ज़हर-ए-ग़म बादा-चुकाँ हो तो ग़ज़ल होती है

फ़िक्र तप तप के निखरती रहे कुंदन की तरह

आग सीने की जवाँ हो तो ग़ज़ल होती है

धीमी धीमी सी नवा सिलसिला जुम्बान-ए-अबद

पर्दा-ए-जाँ में निहाँ हो तो ग़ज़ल होती है

धड़कनें सूरत-ए-अल्फ़ाज़ बिखरती जाएँ

दिल मआ'नी की ज़बाँ हो तो ग़ज़ल होती है

आँच मिट्टी के खिलौनों की तरह मिलती जाए

ज़ेहन ख़्वाबों से तपाँ हो तो ग़ज़ल होती है

रौज़न-ए-माह से पिछले पहर इक शोख़-लक़ा

जानिब-ए-दिल-निगराँ हो तो ग़ज़ल होती है

रूह-ए-शब अपनी अदाओं की तब-ओ-ताब लिए

ख़ल्वत-आरा-ए-बयाँ हो तो ग़ज़ल होती है

एक सय्याल कसक जादा-कुशा-ए-तख़्लीक़

फ़न की नब्ज़ों में रवाँ हो तो ग़ज़ल होती है

तजरबे दर्द की शबनम में नहाएँ 'हुर्मत'

गुल-फ़िशाँ शो'ला-ए-जाँ हो तो ग़ज़ल होती है

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