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अपने चमन पे अब्र ये कैसा बरस गया - हुरमतुल इकराम कविता - Darsaal

अपने चमन पे अब्र ये कैसा बरस गया

अपने चमन पे अब्र ये कैसा बरस गया

हर क़तरा ज़हर बन के फ़ज़ाओं में बस गया

सूद-ओ-ज़ियाँ की फ़िक्र का किस को रहा दिमाग़

मुद्दत हुई कि हौसला-ए-पेश-ओ-पस गया

अब जागते हैं अपनी ही आहट से क़ाफ़िले

राह-ए-तलब से शेवा-ए-बांग-ए-जरस गया

इक सैल-ए-रंग-ओ-नूर से जल-थल है काएनात

कैसा ये तेरे जल्वों का बादल बरस गया

दिखलाएँ हम शिकस्तगी-ए-बाल-ओ-पर किसे

कहते हैं लोग मौसम-ए-क़ैद-ए-क़फ़स गया

चारागरो ये ज़हर उतारो तो बात है

तारीकियों का नाग ज़माने को डस गया

नक़्श-ए-क़दम का भी कोई मिलता नहीं सुराग़

चुपके से दिल में आ के मिरे कौन बस गया

हर लम्हा ज़िंदगी से इबारत था जिन दिनों

क्या क्या न हम से ले के वो दौर-ए-हवस गया

'हुर्मत' ये दिल है अपनी तबाही पे जिस को नाज़

वो फूल है जो खिलने से पहले बिकस गया

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