अपने चमन पे अब्र ये कैसा बरस गया
अपने चमन पे अब्र ये कैसा बरस गया
हर क़तरा ज़हर बन के फ़ज़ाओं में बस गया
सूद-ओ-ज़ियाँ की फ़िक्र का किस को रहा दिमाग़
मुद्दत हुई कि हौसला-ए-पेश-ओ-पस गया
अब जागते हैं अपनी ही आहट से क़ाफ़िले
राह-ए-तलब से शेवा-ए-बांग-ए-जरस गया
इक सैल-ए-रंग-ओ-नूर से जल-थल है काएनात
कैसा ये तेरे जल्वों का बादल बरस गया
दिखलाएँ हम शिकस्तगी-ए-बाल-ओ-पर किसे
कहते हैं लोग मौसम-ए-क़ैद-ए-क़फ़स गया
चारागरो ये ज़हर उतारो तो बात है
तारीकियों का नाग ज़माने को डस गया
नक़्श-ए-क़दम का भी कोई मिलता नहीं सुराग़
चुपके से दिल में आ के मिरे कौन बस गया
हर लम्हा ज़िंदगी से इबारत था जिन दिनों
क्या क्या न हम से ले के वो दौर-ए-हवस गया
'हुर्मत' ये दिल है अपनी तबाही पे जिस को नाज़
वो फूल है जो खिलने से पहले बिकस गया
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