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क़यामतें गुज़र गईं रिवायतों की सोच में - हुमैरा रहमान कविता - Darsaal

क़यामतें गुज़र गईं रिवायतों की सोच में

क़यामतें गुज़र गईं रिवायतों की सोच में

ख़लिश जो थी वही रही मोहब्बतों की सोच में

ये अब खुला कि उस की शाएरी में मेरी बात का

जो रंग ख़ास था मिटा इज़ाफ़तों की सोच में

मैं अपने चेहरा-ए-जुनूँ को आइने में देख लूँ

तो अक्स बुझ न जाएगा हक़ीक़तों की सोच में

मैं अपनी धूप छाँव की ज़मानतें न दे सकूँ

तो आप क्यूँ जलें-बुझें तमाज़तों की सोच में

अजब मज़ाक़ उस का था कि सर से पाँव तक मुझे

वफ़ाओं से भिगो दिया नदामतों की सोच में

गई रुतों ने हँस के रास्तों के ज़ख़्म भर दिए

'हुमैरा' आज कौन था मसाफ़तों की सोच में

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