जो मंज़िल तक जा के और कहीं मुड़ जाए
तुम ऐसे रस्ते के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
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वो इश्क़ को किस तरह समझ पाएगा जिस ने
बना कर एक घर दिल की ज़मीं पर उस की यादों का
मिरे दिल के अकेले घर में 'राहत'
न हम से इश्क़ का मफ़्हूम पूछो
कहानी को मुकम्मल जो करे वो बाब उठा लाई
वो और थे कि जो ना-ख़ुश थे दो जहाँ ले कर
ये किस की याद की बारिश में भीगता है बदन
कभी कभी तो जुदा बे-सबब भी होते हैं
फ़साना अब कोई अंजाम पाना चाहता है
सुना है ख़्वाब मुकम्मल कभी नहीं होते
वो मुझ को आज़माता ही रहा है ज़िंदगी भर