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कहानी को मुकम्मल जो करे वो बाब उठा लाई - हुमैरा राहत कविता - Darsaal

कहानी को मुकम्मल जो करे वो बाब उठा लाई

कहानी को मुकम्मल जो करे वो बाब उठा लाई

मैं उस की आँख के साहिल से अपने ख़्वाब उठा लाई

ख़ुशी मेरी गवारा थी न क़िस्मत को न दुनिया को

सो मैं कुछ ग़म बरा-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब उठा लाई

हमेशा की तरह सर को झुकाया उस की ख़्वाहिश पर

अंधेरा ख़ुद लिया उस के लिए महताब उठा लाई

समेटे उस के आँसू अपने आँचल में तो जाने क्यूँ

मुझे ऐसा लगा कुछ गौहर-ए-नायाब उठा लाई

मयस्सर था न कोई ख़्वाब इन आँखों में रखने को

सो मैं इन के लिए अश्कों का इक सैलाब उठा लाई

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