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बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो - हुमैरा राहत कविता - Darsaal

बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

तुम हँसते चेहरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

तुम ने सिर्फ़ बिछड़ जाने का कर्ब सहा है

पा कर खो देने के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

एक ही छत के नीचे रहते हैं हम लेकिन

तुम मेरे लहजे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

साथ किसी के रह कर जो तन्हा कटता है

तुम ऐसे लम्हे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

हाथों की चूड़ी की ज़बान समझ लेते हो

फैले हुए गजरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

जो मंज़िल तक जा के और कहीं मुड़ जाए

तुम ऐसे रस्ते के दुख से ना-वाक़िफ़ हो

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