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वो तक़ाज़ा-ए-जुनूँ अब के बहारों में न था - होश तिर्मिज़ी कविता - Darsaal

वो तक़ाज़ा-ए-जुनूँ अब के बहारों में न था

वो तक़ाज़ा-ए-जुनूँ अब के बहारों में न था

एक दामन भी तो उलझा हुआ ख़ारों में न था

अश्क-ए-ग़म थम गए याद आते ही उन की सूरत

जब चढ़ा चाँद तो फिर नूर सितारों में न था

मरने जीने को न समझे तो ख़ता किस की है

कौन सा हुक्म है जो उन के इशारों में न था

हर क़दम ख़ाक से दामन को बचाया तुम ने

फिर ये शिकवा है कि मैं राह-गुज़ारों में न था

तुम सा लाखों में न था जान-ए-तमन्ना लेकिन

हम सा महरूम-ए-तमन्ना भी हज़ारों में न था

'होश' करते न अगर ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ क्या करते

पुर्सिश-ए-ग़म का सलीक़ा भी तो यारों में न था

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