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तज़ईन-ए-बज़्म-ए-ग़म के लिए कोई शय तो हो - होश तिर्मिज़ी कविता - Darsaal

तज़ईन-ए-बज़्म-ए-ग़म के लिए कोई शय तो हो

तज़ईन-ए-बज़्म-ए-ग़म के लिए कोई शय तो हो

रौशन चराग़-ए-दिल न सही जाम-ए-मय तो हो

हम तो रहीन-ए-रिश्ता-ए-बे-गानगी रहे

सारे जहाँ से तेरी मुलाक़ात है तो हो

ग़म भी मुझे क़ुबूल है लेकिन ब-क़द्र-ए-शौक़

दिल का नसीब दर्द सही पय-ब-पय तो हो

फ़रियाद एक शोर है आहंग के बग़ैर

नाला मता-ए-दर्द सही कोई लय तो हो

ये क्या कि अहल-ए-शौक़ न अपने न आप के

या मौत या हयात कोई बात तय तो हो

है दूर हुस्न-ए-सिलसिला-ए-ज़ेर-ओ-बम की बात

पहले गुदाज़-ए-सीना सज़ा-वार-ए-नय तो हो

हर-चंद दो क़दम ही सही मंज़िल-ए-मुराद

ये मुख़्तसर सी राह मगर 'होश' तय तो हो

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