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मिलता नहीं मिज़ाज ख़ुद अपनी अदा में है - होश तिर्मिज़ी कविता - Darsaal

मिलता नहीं मिज़ाज ख़ुद अपनी अदा में है

मिलता नहीं मिज़ाज ख़ुद अपनी अदा में है

तेरी गली से आ के सबा भी हवा में है

ऐ इश्क़ तेरी दूसरी मंज़िल भी है कहीं

मरना है इब्तिदा में तो क्या इंतिहा में है

लाती है जब सबा तो चमकते हैं बाम-ओ-दर

ये रौशनी सी क्या तिरी बू-ए-क़बा में है

हर रहगुज़र निशाँ है तिरी सम्त का मगर

इक़रार-ए-ना-रसी भी हर इक नक़्श-ए-पा में है

तौसीफ़-ए-हुस्न अस्ल में है वस्फ़-ए-हुस्न-ए-साज़

बंदों से जिस को प्यार है याद-ए-ख़ुदा में है

ये तिश्नगी ये पास-ए-वफ़ा ये हुजूम-ए-ग़म

क्या कारवान-ए-शौक़ किसी कर्बला में है

सुन कर कि 'होश' ने भी किया तर्क-ए-आरज़ू

कोहराम इक मचा हुआ शहर-ए-वफ़ा में है

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