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लाएगा रंग ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ देखते रहो - होश तिर्मिज़ी कविता - Darsaal

लाएगा रंग ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ देखते रहो

लाएगा रंग ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ देखते रहो

फूटेगी हर कली में ज़बाँ देखते रहो

बरपा सर-ए-हयात है इक हश्र-ए-दार-ओ-गीर

देता है कौन किस को अमाँ देखते रहो

दम-भर को आस्तान-ए-तमन्ना पे है हुजूम

जाए बिछड़ के कौन कहाँ देखते रहो

मिलने को है खमोशी-ए-अहल-ए-जुनूँ की दाद

उठने को है ज़मीं से धुआँ देखते रहो

महफ़िल में उन की शम्अ जली है कि जान-ओ-दिल

खुलता है कब ये राज़-ए-निहाँ देखते रहो

है बर्ग-ए-गुल को बारिश-ए-मिक़राज़ के पयाम

तर्ज़-ए-तपाक-ए-अहल-ए-जहां देखते रहो

आई निगार-ए-ग़म की सदा 'होश' हम चले

तुम इम्तियाज़-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ देखते रहो

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