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पहले तो ख़्वाब ज़ेहन में तश्कील हो गया - हीरानंद सोज़ कविता - Darsaal

पहले तो ख़्वाब ज़ेहन में तश्कील हो गया

पहले तो ख़्वाब ज़ेहन में तश्कील हो गया

फिर सैल-ए-वक़्त में कहीं तहलील हो गया

बे-नूर रास्तों में जो भटके हुए थे लोग

जुगनू भी उन के वास्ते क़िंदील हो गया

कंकर मलामतों के गिराता है मिस्ल-ए-संग

मुझ में कोई परिंद अबाबील हो गया

वक़्त-ए-तुलूअ' आया गहन आफ़्ताब पर

दिन चढ़ रहा था रात में तब्दील हो गया

था जिस ग़नी के पास ख़ज़ीना-ए-इल्म-ओ-फ़न

वो अहद-ए-नौ के हाथ में ज़म्बील हो गया

अपने घरों के कर दिए आँगन लहू लहू

हर शख़्स मेरे शहर का क़ाबील हो गया

लौह-ए-जबीं पे वक़्त ने वो हर्फ़ लिख दिए

चेहरा ग़म-ए-हयात की तफ़्सील हो गया

सद शुक्र 'सोज़' मेरे ख़यालात के लिए

मेरा क़लम वसीला-ए-तर्सील हो गया

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