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कोई भी शख़्स जो वहम-ओ-गुमाँ की ज़द में रहा - हीरानंद सोज़ कविता - Darsaal

कोई भी शख़्स जो वहम-ओ-गुमाँ की ज़द में रहा

कोई भी शख़्स जो वहम-ओ-गुमाँ की ज़द में रहा

वो ता-हयात अज़ाब-ए-क़ुबूल-ओ-रद में रहा

ख़ुदा की ज़ात में ज़म हो गया जहाँ दरवेश

वहाँ न फ़र्क़ कोई कार-ए-नेक-ओ-बद में रहा

वो मोहतरम है जो तस्ख़ीर-ए-ज़ात की ख़ातिर

तमाम उम्र लड़ा और अपनी हद में रहा

मिरे ही दम से कहानी में मा'नविय्यत थी

मिरा शुमार मगर हर्फ़-ए-मुस्तरद में रहा

वो हर लिहाज़ से ना-मो'तबर इकाई था

मगर वक़ार से मौजूद हर अदद में रहा

अजल ने ज़ीस्त के सब मसअले समेट लिए

बड़े सुकून से वो गोशा-ए-लहद में रहा

वो मैं नहीं था कोई और शख़्स था ऐ 'सोज़'

जो मेरा जिस्म लिए मेरे ख़ाल-ओ-ख़द में रहा

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