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मुसलमान और हिन्दोस्तान - हिन्दी गोरखपुरी कविता - Darsaal

मुसलमान और हिन्दोस्तान

तारीख़ ब-हर दौर उलटती है वरक़ और

मज़हब में है लेकिन वतनियत का सबक़ और

तू मर्द-ए-मुसलमाँ है तो इक बात ज़रा सुन

आग़ोश-ए-तयक़्क़ुन से हक़ीक़त की सदा सुन

ये सच है मुसलमान तबाही से घिरा है

इक वसवसा-ए-ला-मुतनाही से घिरा है

आलाम की हद अपने शिकंजे में लिए है

इक दौर-ए-मसाइब है कि नर्ग़े में लिए है

आराम है मफ़क़ूद सुकूँ पास नहीं है

अब जैसे कि जीने की कोई आस नहीं है

आफ़ात निगल जाने को मुँह खोल रहे हैं

ख़तरात हर इक सम्त बहम बोल रहे हैं

पज़मुर्दगी-ओ-ख़ौफ़ का हर घर में है फेरा

हर दिल में हिरासानी-ए-बे-हद का है डेरा

बे-रब्त है बे-ज़ब्त है बे-राह-नुमा है

मुस्लिम है कि बे-अज़्म है बे-हौसला-पा है

अमवाज-ए-हवादिस में है ईमान-परस्ती

तूफ़ान की ज़द पर है मुसलमान की कश्ती

ये बात जहाँ में है पुरानी भी नई भी

हर क़ौम को मिलती है सज़ा उस के किए की

तुम आज मगर अपनों से मुँह मोड़ रहे हो

अब सर पे मुसीबत है तो घर छोड़ रहे हो

ये फ़े'ल मुसलमान के शायाँ तो नहीं है

ये दीं नहीं मज़हब नहीं ईमाँ तो नहीं है

भारत के ब-हर-हाल वफ़ादार बनो तुम

नामूस के इज़्ज़त के निगह-दार बनो तुम

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