Sharab Poetry (page 16)
जल्वा-ए-हुस्न अगर ज़ीनत-ए-काशाना बने
ग़ुबार भट्टी
अजब इंक़लाब का दौर है कि हर एक सम्त फ़िशार है
ग़ुबार भट्टी
बैठे हैं ईद को सब यार बग़ल में ले कर
ग़ज़नफ़र अली ग़ज़नफ़र
दिल की नय्या दो नैनों के मोह में डूबी जाए
ग़ौस सीवानी
जाम ले कर मुझ से वो कहता है अपने मुँह को फेर
ग़मगीन देहलवी
उस की सूरत का तसव्वुर दिल में जब लाते हैं हम
ग़मगीन देहलवी
तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
ग़ालिब
ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग
ग़ालिब
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
ग़ालिब
रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
ग़ालिब
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
ग़ालिब
पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
ग़ालिब
नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
ग़ालिब
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
ग़ालिब
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
ग़ालिब
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
ग़ालिब
मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
ग़ालिब
कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना
ग़ालिब
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
ग़ालिब
जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
ग़ालिब
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
ग़ालिब
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
ग़ालिब
और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया
ग़ालिब
अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
ग़ालिब
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
ग़ालिब
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
ग़ालिब
ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक
ग़ालिब
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
ग़ालिब
वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
ग़ालिब
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए
ग़ालिब