यूसुफ़-ए-सानी
मैं चाह-ए-कनआँ में ज़ख़्म-ख़ुर्दा पड़ा हुआ हूँ
ज़मीं में ज़िंदा गड़ा हुआ हूँ
कोई मुझे इस बिरादराना फ़रेब की क़ब्र से निकाले
मुझे ख़रीदे कि बेच डाले
कि चश्म-ए-याक़ूब तो मिरे ग़म में कल भी गिर्यां थी
आज भी है
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मैं चाह-ए-कनआँ में ज़ख़्म-ख़ुर्दा पड़ा हुआ हूँ
ज़मीं में ज़िंदा गड़ा हुआ हूँ
कोई मुझे इस बिरादराना फ़रेब की क़ब्र से निकाले
मुझे ख़रीदे कि बेच डाले
कि चश्म-ए-याक़ूब तो मिरे ग़म में कल भी गिर्यां थी
आज भी है
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