साए चमक रहे थे सियासत की बात थी
आँखें खुलीं तो सुब्ह के पर्दे में रात थी
मैं तो समझ रहा था कि मुझ पर है मेहरबाँ
दीवार की ये छाँव तो सूरज के साथ थी
किस दर्जा हौल-नाक है यारो शुऊर-ए-ज़ात
कितनी हसीन पहले यही काएनात थी
तेरी जफ़ा तो मोरिद-ए-इल्ज़ाम थी न है
मेरी वफ़ा भी कोशिश-ए-तकमील-ए-ज़ात थी