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रात सुनसान दश्त ओ दर ख़ामोश - हिमायत अली शाएर कविता - Darsaal

रात सुनसान दश्त ओ दर ख़ामोश

रात सुनसान दश्त ओ दर ख़ामोश

चाँद तारे शजर हजर ख़ामोश

कोई आवाज़-ए-पा न बाँग-ए-जरस

कारवाँ और इस क़दर ख़ामोश

हर तरफ़ इक मुहीब सन्नाटा

दिल धड़कता तो है मगर ख़ामोश

हुए जाते हैं किस लिए आख़िर

हम-सफ़र बात बात पर ख़ामोश

हैं ये आदाब-ए-रहगुज़र कि ख़ौफ़

राह-रौ चुप हैं राहबर ख़ामोश

मुख़्तसर हो न हो शब-ए-तारीक

हम को जलना है ता सहर ख़ामोश

ढल चुकी रात बुझ गईं शमएँ

राह तकती है चश्म-ए-तर ख़ामोश

जाने क्या बात कर रहे थे कि हम

हो गए एक नाम पर ख़ामोश

हम से 'शाइर' भी हो गए आख़िर

रंग-ए-हालात देख कर ख़ामोश

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