मंज़िल के ख़्वाब देखते हैं पाँव काट के
मंज़िल के ख़्वाब देखते हैं पाँव काट के
क्या सादा-दिल ये लोग हैं घर के न घाट के
अब अपने आँसुओं में हैं डूबे हुए तमाम
आए थे अपने ख़ून का दरिया जो पाट के
शहर-ए-वफ़ा में हक़्क़-ए-नमक यूँ अदा हुआ
महफ़िल में हैं लगे हुए पैवंद टाट के
खिंचती थी जिन के ख़ौफ़ से सद्द-ए-सिकंदरी
सोए नहीं हैं आज वो दीवार चाट के
अब तो दरिंदगी की नाश भी हुस्न है
दीवार पर सजाते हैं सर काट काट के
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