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मैं जो कुछ सोचता हूँ अब तुम्हें भी सोचना होगा - हिमायत अली शाएर कविता - Darsaal

मैं जो कुछ सोचता हूँ अब तुम्हें भी सोचना होगा

मैं जो कुछ सोचता हूँ अब तुम्हें भी सोचना होगा

जो होगा ज़िंदगी का ढब तुम्हें भी सोचना होगा

अभी तो आँख ओझल है मगर ख़ुर्शीद के हाथों

खींचेगी जब रिदा-ए-शब तुम्हें भी सोचना होगा

मुक़द्दर में तुम्हारे क्यूँ नहीं लिख्खा ब-जुज़ मेरे

सलीब-ओ-दार का मंसब तुम्हें भी सोचना होगा

ये कैसा क़ाफ़िला है जिस में सारे लोग तन्हा हैं

ये किस बर्ज़ख़ में हैं हम सब तुम्हें भी सोचना होगा

ख़ुदा और आदमी दोनों अगर ऐन-ए-हक़ीक़त हैं

हक़ीक़त में है क्या मज़हब तुम्हें भी सोचना होगा

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