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क्या क्या न ज़िंदगी के फ़साने रक़म हुए - हिमायत अली शाएर कविता - Darsaal

क्या क्या न ज़िंदगी के फ़साने रक़म हुए

क्या क्या न ज़िंदगी के फ़साने रक़म हुए

लेकिन जो हासिल-ए-ग़म-ए-दिल थे वो कम हुए

ऐ तिश्नगी-ए-दर्द कोई ग़म कोई करम

मुद्दत गुज़र गई है इन आँखों को नम हुए

मिलने को एक इज़्न-ए-तबस्सुम तो मिल गया

कुछ दिल ही जानता है जो दिल पर सितम हुए

दामन का चाक चाक-ए-जिगर से न मिल सका

कितनी ही बार दस्त-ओ-गरेबाँ बहम हुए

किस को है ये ख़बर कि ब-उनवान-ए-ज़िंदगी

किस हुस्न-ए-एहतिमाम से मस्लूब हम हुए

अर्बाब-ए-इश्क़-ओ-अहल-ए-हवस में है फ़र्क़ क्या

सब ही तिरी निगाह में जब मोहतरम हुए

'शाइर' तुम्हीं पे तंग नहीं अरसा-ए-हयात

हर अहल-ए-फ़न पे दहर में ऐसे करम हुए

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