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इस शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में कोई तो अज़ान दे - हिमायत अली शाएर कविता - Darsaal

इस शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में कोई तो अज़ान दे

इस शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में कोई तो अज़ान दे

ऐसा न हो ज़मीं का जवाब आसमान दे

पढ़ना है तो नविश्ता-ए-बैनस्सुतूर पढ़

तहरीर-ए-बे-हुरूफ़ के मअनी पे ध्यान दे

सूरज तो क्या बुझेगा मगर ऐ हवा-ए-महर

तपती ज़मीं पे अब्र की चादर ही तान दे

अब धूप से गुरेज़ करोगे तो एक दिन

मुमकिन है साया भी न कोई साएबान दे

मैं सोचता हूँ इस लिए शायद मैं ज़िंदा हूँ

मुमकिन है ये गुमान हक़ीक़त का ज्ञान दे

मैं सच तो बोलता हूँ मगर ऐ ख़ुदा-ए-हर्फ़

तू जिस में सोचता है मुझे वो ज़बान दे

सूरज के गिर्द घूम रहा हूँ ज़मीं के साथ

इस गर्दिश-ए-मुदाम से मुझ को अमान दे

मैं तंगी-ए-मकाँ से न हो जाऊँ तंग-दिल

अपनी तरह मुझे भी कोई ला-मकान दे

मेरी गवाही देने लगी मेरी शाएरी

यारब मिरे सुख़न को वो हुस्न-ए-बयान दे

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