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आँख की क़िस्मत है अब बहता समुंदर देखना - हिमायत अली शाएर कविता - Darsaal

आँख की क़िस्मत है अब बहता समुंदर देखना

आँख की क़िस्मत है अब बहता समुंदर देखना

और फिर इक डूबते सूरज का मंज़र देखना

शाम हो जाए तो दिन का ग़म मनाने के लिए

एक शोला सा मुनव्वर अपने अंदर देखना

रौशनी में अपनी शख़्सियत पे जब भी सोचना

अपने क़द को अपने साए से भी कम-तर देखना

संग-ए-मंज़िल इस्तिआरा संग-ए-मर्क़द का न हो

अपने ज़िंदा जिस्म को पत्थर बना कर देखना

कैसी आहट है पस-ए-दीवार आख़िर कौन है

आँख बनता जा रहा है रौज़न-ए-दर देखना

ऐसा लगता है कि दीवारों में दर खुल जाएँगे

साया-ए-दीवार के ख़ामोश तेवर देखना

इक तरफ़ उड़ते अबाबील इक तरफ़ असहाब-ए-फ़ील

अब के अपने काबा-ए-जाँ का मुक़द्दर देखना

सफ़्हा-ए-क़िर्तास है या ज़ंग-ख़ुर्दा आईना

लिख रहे हैं आज क्या अपने सुख़न-वर देखना

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