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ये विसाल ओ हिज्र का मसअला तो मिरी समझ में न आ सका - हिलाल फ़रीद कविता - Darsaal

ये विसाल ओ हिज्र का मसअला तो मिरी समझ में न आ सका

ये विसाल ओ हिज्र का मसअला तो मिरी समझ में न आ सका

कभी कोई मुझ को न पा सका कभी मैं किसी को न पा सका

कई बस्तियों को उलट चुका कोई ताब इस की न ला सका

मगर आँधियों का ये सिलसिला तिरा नक़्श-ए-पा न मिटा सका

मिरी दास्ताँ भी अजीब है वो क़दम क़दम मिरे साथ था

जिसे राज़-ए-दिल न बता सका जिसे दाग़-ए-दिल न दिखा सका

न ही बिजलियाँ न ही बारिशें न ही दुश्मनों की वो साज़िशें

भला क्या सबब है बता ज़रा जो तू आज भी नहीं आ सका

कभी रौशनी की तलब रही कभी हौसलों की कमी रही

मैं चराग़ को तिरे नाम के न जला सका न बुझा सका

वो जो अक्स रंग-ए-'हिलाल' थी वो जो आप अपनी मिसाल थी

मुझे आज तक है ख़लिश यही तुझे वो ग़ज़ल न सुना सका

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