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शब-ए-फ़िराक़ कुछ ऐसा ख़याल-ए-यार रहा - हिज्र नाज़िम अली ख़ान कविता - Darsaal

शब-ए-फ़िराक़ कुछ ऐसा ख़याल-ए-यार रहा

शब-ए-फ़िराक़ कुछ ऐसा ख़याल-ए-यार रहा

कि रात भर दिल-ए-ग़म-दीदा बे-क़रार रहा

कहेगी हश्र के दिन उस की रहमत-ए-बे-हद

कि बे-गुनाह से अच्छा गुनाह-गार रहा

तिरा ख़याल भी किस दर्जा शोख़ है ऐ शोख़

कि जितनी देर रहा दिल में बे-क़रार रहा

शराब-ए-इश्क़ फ़क़त इक ज़रा सी चक्खी थी

बड़ा सुरूर घुटा मुद्दतों ख़ुमार रहा

उन्हें ग़रज़ उन्हें मतलब वो हाल क्यूँ पूछें

बला से उन की अगर कोई बे-क़रार रहा

तुम्हें कभी न कभी मर के भी दिखा दूँगा

जो ज़िंदगी ने वफ़ा की जो बरक़रार रहा

अदाएँ देख चुके आईने में आप अपनी

बताइए तो सही दिल पर इख़्तियार रहा

शब-ए-विसाल बड़े लुत्फ़ से कटी ऐ 'हिज्र'

तमाम रात किसी के गले का हार रहा

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