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कुछ मोहब्बत में अजब शेव-ए-दिल-दार रहा - हिज्र नाज़िम अली ख़ान कविता - Darsaal

कुछ मोहब्बत में अजब शेव-ए-दिल-दार रहा

कुछ मोहब्बत में अजब शेव-ए-दिल-दार रहा

मुझ से इंकार रहा ग़ैर से इक़रार रहा

कुछ सरोकार नहीं जान रहे या न रहे

न रहा उन से तो फिर किस से सरोकार रहा

शब-ए-ख़ल्वत वही हुज्जत वही तकरार रही

वही क़िस्सा वही ग़ुस्सा वही इंकार रहा

तालिब-ए-दीद को ज़ालिम ने ये लिक्खा ख़त में

अब क़यामत पे मिरा वादा-ए-दीदार रहा

हाल-ए-दिल बज़्म में उस शोख़ से हम कह न सके

लब-ए-ख़ामोश की सूरत लब-ए-इज़हार रहा

कुछ ख़बर है तुझे ओ चैन से सोने वाले

रात भर कौन तिरी याद में बेदार रहा

इक नज़र नज़अ में देखी थी किसी की सूरत

मुद्दतों क़ब्र में बेचैन दिल-ए-ज़ार रहा

दिल हमारा था हमारा था हमारा लेकिन

उन के क़ाबू में रहा उन का तरफ़-दार रहा

उम्र हँस-खेल के इस तरह गुज़ारी ऐ 'हिज्र'

दोस्त का दोस्त रहा यार का मैं यार रहा

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