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दिल फ़ुर्क़त-ए-हबीब में दीवाना हो गया - हिज्र नाज़िम अली ख़ान कविता - Darsaal

दिल फ़ुर्क़त-ए-हबीब में दीवाना हो गया

दिल फ़ुर्क़त-ए-हबीब में दीवाना हो गया

इक मुझ से क्या जहान से बेगाना हो गया

क़ासिद को ये मिला मिरे पैग़ाम का जवाब

तू भी हमारी राय में दीवाना हो गया

देखा जो उन को बाम पे ग़श आ गया मुझे

ताज़ा कलीम-ओ-तूर का अफ़्साना हो गया

हाँ हाँ तुम्हारे हुस्न की कोई ख़ता नहीं

मैं हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से दीवाना हो गया

देखा गया न बज़्म में सोज़-ओ-गुदाज़-ए-शम'अ

फूलों की पंखियाँ पर-ए-परवाना हो गया

यूँ सब से पूछते हैं वो मेरे जुनूँ का हाल

दीवाना बन गया है कि दीवाना हो गया

आँसू बहाए फ़ुर्क़त-ए-साक़ी में इस क़दर

लबरेज़ अपनी उम्र का पैमाना हो गया

दिल उन के बस में है मुझे क्या दिल पर इख़्तियार

कैसा रफ़ीक़ इश्क़ में बेगाना हो गया

जोश-ए-जुनूँ में छोड़ दिए सब ने अपने घर

आबाद उन के अहद में वीराना हो गया

उन को तो अपनी जल्वा-नुमाई से काम है

इस की ख़बर नहीं कोई दीवाना हो गया

अब हर तरफ़ रक़ीब पर उठती हैं उँगलियाँ

मशहूर उन के इश्क़ का अफ़्साना हो गया

इस दर्जा 'हिज्र' होश-रुबा है किसी का हुस्न

जिस की निगाह पड़ गई दीवाना हो गया

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