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रास आई न मुझे अंजुमन-आराई भी - हिदायतुल्लाह ख़ान शम्सी कविता - Darsaal

रास आई न मुझे अंजुमन-आराई भी

रास आई न मुझे अंजुमन-आराई भी

आफ़त-ए-जान बनी हाए शनासाई भी

दुश्मनों की मिरे औक़ात कहाँ थी इतनी

साज़िश-ए-क़त्ल में शामिल था मिरा भाई भी

आँख अंधी थी ज़माने से यहाँ लोगों की

मर गई ज़ेर‌‌‌‌-ए-दहन क़ुव्वत-ए-गोयाई भी

तुझ से निस्बत हो कोई संग-ए-मलामत की अगर

मुझ को प्यारी है तिरे शहर में रुस्वाई भी

कश्ती-ए-ज़ीस्त जहाँ डूब रही थी मेरी

मेरे अपने थे वहाँ लोग तमाशाई भी

कर दिया मुझ को मसाइल ने अभी से बूढ़ा

वक़्त ने रुख़ से मिरे छीन ली रा'नाई भी

मुफ़लिसी जिन के मुक़द्दर में लिखी है 'शम्सी'

उन के घर बजती नहीं है कभी शहनाई भी

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